Thursday, October 7, 2010

लूकस टेटे का मारा जाना: महज संयोग या कुछ और ?

वैधव्य की मर्मान्तक मार झेल रही प्यारी और उसकी तीन किशोरवय बेटिओं की आँखों के आंसू अभी सूखे नहीं हैं। आखिर ऐसा होगा भी कैसे ? उसका जवान पति लूकस टेटे कर्त्तव्य निर्वाह के दौरान शहीद जो हो गया । लूकस टेटे बिहार मिलिटरी पुलिस में प्रशिक्षु सहायक पुलिस इंस्पेक्टर था वैसे तो माओवादी और नक्सली हिंसा में रोज़ ही पुलिस या सेना का कोई न कोई जवान मारा जाता है लेकिन जिन परिस्थितिओं में लूकस टेटे की हत्या की गयी , उन परिस्थितियों और कारकों की व्यापक पड़ताल जरुरी है हादसे की शुरुवात उस वक़्त हुई जब २९ अगस्त को पटना से कोई १७० किलोमीटर पूर्व लखीसराय जिले के कजरा जंगल में मावोवादियों और बिहार मिलिटरी पुलिस के बीच जमकर ख़ूनी संघर्ष हुआ । इस झड़प में ७ पुलिसकर्मी मरे गए , १० बुरी तरह ज़ख़्मी हुए तथा ४ का अपहरण कर लिया गया । इस सशस्त्र संघर्ष में खतरनाक हथियारों से लैस १५० मावोवादी और सैकड़ों की तादाद में पीपल्स गुरिल्ला लिबेरशन आर्मी के जवान शामिल थे । अपहृत किये गए पुलिसकर्मियों में अभय यादव , रुपेश कुमार सिन्हा , एहसान खान और लूकस टेटे शामिल थे । इनमें से लूकस टेटे और एहसान खान झारखण्ड के तथा शेष दो बिहार के रहने वाले थे ।
अपहरण की खबर मिलते ही एक ओर ज़हां प्रभावित परिवारों में दहशत फ़ैल गया वहीँ दूसरी ओर राजनैतिक सरगर्मिया तेज होने लगीं । उधर मावोवादियों ने नितीश सरकार पर अपने साथियों को जेल से रिहा करने का दबाव बनाना शुरू कर दिया । अपनी सोची समझी रणनीति के अनुसार मावोवादियों ने मीडिया के माध्यम से झूठी खबर फैलाई की तय समय सीमा में जेल में बंद मावोवादियों को रिहा नहीं किये जाने की स्थिति में अपहृत अभय यादव को मार दिया गया ।ऐसा इसलिए किया गया ताकि बिहार में सर्वाधिक शक्तिशाली वोट बैंक पर मनोवैज्ञानिक आतंक और भय का माहौल बनाया जा सके । बिहार में होने वाले चुनाव के मद्देनज़र उन्होंने यह रणनीति अपनाई । अभय यादव की पत्नी ने अपने पति की जान बचने के लिए मुख्यमंत्री नितीश कुमार से गुहार लगाई । दुसरे पीड़ित परिवारों ने भी अपने अपने अस्तर से सरकार पर दबाव बनाना शुरू कर दिया । पूरे बिहार में भावनात्मक उद्वेग का एक ज्वार सा फूट पड़ा।इसी बीच मावोवादियों का कोई प्रतिनिधि अभय यादव के परिवार से मिला तथा उसके जीवित होने का आश्वासन दिया । ज़ाहिर है ऐसा मावोवादियों के उदार और मानवीय रुख की ऐसी तस्वीर पेश करनी थी ताकि उनके प्रति सामाजिक सहानुभूति भी पैदा हो । इस परिप्रेक्ष्य में बिहार की जनसांख्यकीय संरचना पर थोडा विचार करना होगा । हालिया जनगणना के मुताबिक बिहार की कुल जनसँख्या ८ करोड़ से कुछ ज्यादा है । इसमें सबसे अधिक संख्या यादवों और कुर्मियों की है । सवर्ण जातियों , मुसलमानों एवं आदिवासियों के बाद सबसे कम संख्या ईसाईयों की है जो कुल जनसँख्या की तकरीबन .५० फ़ीसदी के आसपास बैठती है । मावोवादियों एवं विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच जो समीकरण हैं उसने निश्चित रूप से अपहृतों की जान बचाने या उन्हें ख़त्म कर देने के पीछे जातीय कारक को महत्व दिया। ज़ाहिर है अभय यादव और रुपेश सिन्हा के मारे जाने से वोटवादी राजनीति पर सबसे ज्यादा असर पड़ता ।उधर एहसान खान के मारे जाने से अल्पसंख्यक समुदाय के नाराज़ होने तथा सांप्रदायिक तनाव का खतरा होता ।ऐसे में बेचारा लूकस टेटे ही एक ऐसा अभागा था जिसे आसानी से और बिना किसी जोखिम के शिकार बनाया जा सकता था । यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बिहार में जो मावोवादी खेमा सक्रिय है उस पर अरविन्द यादव का वर्चस्व है ।ऐसे में अरविन्द यादव हर हालत में अभय यादव को अभयदान देता और दिया भी । लूकस टेटे एक तो ईसाई आदिवासी और दुसरे झारखण्ड का रहने वाला जहाँ कोई चुनाव नहीं होना था । इन दोनों कारणों से उसे अपनी जान गवानी पडी । ईसाई आदिवासियों के प्रति मावोवादियों के मन में कोई सहानुभूति नहीं है । इसके पीछे भी कई कारण है ।एक तो उनकी बेहतर शैक्षणिक पृष्ठभूमि और दुसरे रोज़गार पाने में ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना । ऐसे में सरकार के प्रति उनके आक्रोश में वह कट्टरता नहीं दिखाई देती जो आम मावोवादियों में होती है । और यही कारण है जिससे ईसाई आदिवासी मावोवादियों के हिंसात्मक विद्रोह का समर्थन करते नहीं दीखते । मावोवादियों में इस वज़ह से भी ईसाई आदिवासियों के प्रति नाराज़गी है । लूकस टेटे की मौत के पीछे यह गुस्सा भी कुछ हद तक ज़िम्मेदार है ।
भागलपुर प्रक्षेत्र के पुलिस महानिरीक्षक ए .के .आंबेडकर की मानें तो जिस दिन यह खुनी संघर्ष हुआ उस दिन मावोवादियों के शीर्ष आदिवासी जोनल कमांडर बीरबल मुर्मू भी उसी क्षेत्र में मौजूद थे । लूकस टेटे की मौत की खबर मिलने पर बीरबल मुर्मू ने अरविन्द यादव से मांग की कि अन्य तीन अपहृतों को भी मार दिया जाय । मुर्मू कि इस मांग ने दोनों गुटों में संघर्ष कि स्थिति निर्मित कर दी । इसका परिणाम यह हुआ कि दोनों गुटों के बीच ज़मकर खूनी झड़प होती रही । अपेक्षाकृत ताकतवर होने के कारण अरविन्द यादव खेमे ने मुर्मू को मैदान छोड़ने पर मजबूर कर दिया ।अब हालात ऐसे बन गए कि अपहृतों कि सुरक्षा संदिग्ध हो गयी । मजबूर होकर तीनों अपहृतों को छोड़ना पड़ा।
यहाँ एक प्रश्न उठना लाजिमी है कि क्या मावोवाद अपने सिद्धांतों और आदर्शों को छोड़कर संकीर्ण जातिगत सोच का शिकार होता जा रहा है ? ताज़ा घटनाक्रम को देखें तो इस सवाल का जवाब हाँ में ही आता है । ऐसा पहली बार हुआ है कि जो राजनेता एवं विचारक हमेशा और अनिवार्यतः मावोवादी तथा नक्सली हिंसा का समर्थन करते थे वे भी लूकस टेटे कि हत्या कि निंदा करते दिखे ।अरुंधती रॉय ,जी., ।

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