Saturday, July 24, 2010

बेरहम पत्तियां

बेरहम हैं
पत्तियां
डर जाती हैं
मौसमी हवाओं से
और
छोड़ जाती हैं
शाख को
तनहा
देकर चाँद दर्दीले
निशान ।

कमीज़

कमीज़
आत्मीय संबंधों की
कहीं बीच से
कुछ
फट सी गयी है।
पैबंद
औपचारिकताओं के
बदसूरत लगने लगे हैं।
सोचता हूँ
कमीज़ बदल लूँ
या
बतौर फैशन
पैबंद लगी कमीज़ पहनता रहूँ।

Monday, July 19, 2010

बबुआ उठिजा भईल बिहान...

बबुआ उठिजा भईल बिहान
जग गईल बा सगरो जहान
सुतल रहबा ओठंगल रहबा
एनी ओनी अउर जम्हैबा
कैसे करबा घर के कल्याण
बबुआ उठ्जा भईल बिहान
इम्तिहान सर पर आ गईल
तैयारी ना कुछ भी भईल
कम्पटीशन के जुग आ गईल
नइखे तोहरा तनिको ध्यान
बबुआ उठिजा भईल बिहान ।
बाबूजी उठ्लें ,काका उठ्लें
चार दिन के बाबू उठल,सौ बरस के बाबा उठ्लें
जग गईल सब खेत खलिहान
बबुआ उठिजा भईल बिहान।
उठली भैसिया बयला उठल
पगुरात उठ गईल गाय
रात भर के भूखल बछवा
लिहलस पगहा तुराय
बहुत हो गईल शर्म करा अब
मत अब सुता चादर तान
बबुआ उठिजा भईल बिहान।
बाज गईल मंदिर में घंटा
घंटा बाजल गिरिजाघर में
लईका लईकी पढ़े लागलें
मस्जिद में हो गईल अज़ान
मुर्गा बोललस रमजान मियां के
जाग जाग ऐ इन्सान
बबुआ उठिजा भईल बिहान।
बरखा बुन्नी पड़ते नइखे
ना पानी के कौनो साधन बा
रूपया पैसा के का कहीं
तोहरा से का छुपल बा
सावन बीतल भादो बीतल
केथी पर अब करीं अरमान
सोचा तानी गुना तानी
कैसे रोपाई असो धान
बबुआ उठिजा भईल बिहान।
कबसे दुलहिनिया बैठल बिया
लेके नाश्ता अदरक के चाय
देखत देखत ताकत ताकत
गरम चाय अब गईल सेराइ
घर के चूल्हा बा कबके बुझल
ओकरी दुःख के ओकरी सुख के
कौनो उपाय ना तोहरा सूझल
उठिजा बाबू अब ता उठिजा
बनल रहबा कब तक अनजान
बबुआ उठिजा भईल बिहान।
उम्र भईल पचहत्तर के अब
कौनो ना घर के भईल विकास
अबले ना भईल ता अब का होई
अब केकरा पर करीं आस
केतना कहनीं केतना सुननी
ना दिहला तू तनिको ध्यान
बबुआ उठिजा भईल बिहान
जाग गईल बा सगरो जहान
बबुआ उठिजा भईल बिहान।












Saturday, July 17, 2010

मैं और मेरा गाँव ....

आँख ने देखे न जाने ख्वाब कितने स्वर्ग के
किन्तु भूला मैं नहीं हूँ ख्वाब में भी पाँव को
आबो हवा में शहर की मैं रह रहा बरसो बरस
किन्तु भूला मैं नहीं हूँ ख्वाब में भी गाँव को ।
[] लक्ष्मी कान्त