Tuesday, August 24, 2010

हिंदी कविता- बादल

बादल
आज बादल बरस रहे हैं
शुष्क धरा को सरस कर रहे
खोकर भी सर्वस्व चुप रहे
आज बादल बरस रहे हैं
जैसे कोई अश्रु बहाए
रिमझिम रिमझिम गीत सुनाये
उमड़ घुमड़ कर साज सजाये
आज बादल बरस रहे हैं
शुष्क धरा हो गयी मगन
उर्ध्व दिशा ले गयी अगन
और मेघ हो गए सघन
आज बादल बरस रहे हैं
धरा धरोहर धारण करते
रीते मन को स्वयं मनाते
जब कभी धरा हो गयी शुष्क
हम फिर से जल बर्सायेगे
आज बादल बरस रहे हैं।

Monday, August 23, 2010

हिंदी कविता -अधर मुस्कुराये नयन छल्छ्लाये

अधर मुस्कुराये
नयन छलछलाए
हृदय की कहानी
हृदय में दबाये
जिए जा रहा हूँ
तेरी याद में
अपनी नज़रें बिछाए ।
कभी तो रवानी
तेरी जुल्फ की
तेरे माथे की बिंदिया से
कुछ तो कहेगी
तेरी मेरी बातों को
सपनों की रातों को
अश्कों की थाली में
जैसे नहाये
अधर मुस्कुराये नयन छल्छ्लाये ........
चूड़ियाँ खंखानाएं
तेरे हाथ की तो
लगे मेरे ज़ेहन में
बरसों समाये
कोई शख्स दामन
बचाने की तरकीब
सोचे बनाये
अधर मुस्कुराये नयन छल्छ्लाये .....
अब तो बगीचे की अमराईया hon
yaa khwabon mein bajti shehnayeeaan hon
veeraana veeraana ye manzar to dekho
baraste ye olon ke khanzar to dekho
bahut ho gaya ab to
sapne rulaye
adhar muskaraye nayan chhalchhalaye
hridaya kee kahaanee hridaya mein dabaaye
jiye jaa raha hun
teri yaad mein apni nazren bichhaye.
Lakshmi Kant

कविता-संध्या

संध्या की रक्तिम आभा को

ढल रहे दिवस की अरुणिमा को

निरख रहा हूँ बरसों से

ललित शाम के चेहरे बदले

और सुनहरे रंग भी बदले

मन मानस की दिशा बदली

निरख रहा हूँ बरसों से

बसा लिया था उसको दिल में

सोच लिया था कभी ना बदले

लेकिन वह तो हर पल बदली

निरख रहा हूँ बरसो से

संध्या की रक्तिम शोभा को

जन्म दिया था सूरज ने

हृदय जलाकर दिया प्रकाश को

निरख रहा हूँ बरसों से

करो नयन जब और सूर्य की

होगा मिलन तपन से उसकी

लजा गयी नयन नत हुई

निरख रहा हूँ बरसों से

निशा नींद में सुला गयी है

मन मानस को जगा गयी है

कुछ सोचोगे बता गयी है

निरख रहा हूँ बरसों से

सूरज तो तप रहा अभी भी

सागर के उस पार तप रहा

संध्या चैन की नींद सो रही

निरख रहा हूँ बरसों से

# लक्ष्मी कान्त

त्वरित टिप्पणी - परसाई का जन्मदिन

२२ अगस्त को परसाई का जन्मदिन पूरे साहित्य जगत में मनाया गया। कहीं गोष्ठियां आयोजित की गयीं तो कहीं व्याख्यान। ख्यातनाम साहित्यकार हरिशंकर परसाई की कर्मभूमि जबलपुर रही है तो वहां के आयोजन विशेष मायने रखते हैं। परसाई द्वारा स्थापित संस्था विवेचना ने रानी दुर्गावती संग्रहालय की कला वीथिका में एक कार्यक्रम आयोजित किया। ज्ञान चतुर्वेदी का व्याख्यान होना था परन्तु अपरिहार्य कारण से वे नहीं आ सके। आये होते तो अच्छा हुआ होता । " परसाई के बाद व्यंग्य" विषय पर उन्हें बोलना था। साहित्यिक क्षेत्र में जबलपुर के गौरव ज्ञान रंजन ने परसाई को साहित्य और जीवन का निर्माता निरुपित किया । उन्होंने यह भी कहा कि अक्सर लोग गोष्ठियां एवं व्याख्यान आयोजित कर परसाई को भूल जाते हैं।
परसाई क़ी सृजनस्थली में भी उनके जन्मदिन पर ऐसे ही कुछ साहित्यिक कर्मकांड होते हैं। जबलपुर में व्यंग्य लेखन परिदृश्य पर क्या कुछ लिखा जा रहा है , इस पर चर्चा तक नहीं होती।ऐसे में विख्यात व्यंग्यशिल्पी ज्ञान चतुर्वेदी का न आ पाना अखरा । होना यह चाहिए कि व्यंग्य के क्षेत्र में नए लोग जो कुछ भी लिख रहे हैं ,उन्हें सामने लाकर उनका मूल्याङ्कन किया जाये। स्थापित हस्ताक्षरों तक ही सीमित होजाने से तो आगे शून्य ही दिखेगा। जबलपुर में भी कुछ लोग सार्थक व्यंग्य लिख रहे हैं। राकेश सोऽहं ऐसे ही एक सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर है। देश क़ी तमाम जानी पहचानी पत्रिकाओं में और स्थानीय से लेकर राष्ट्रीय अखबारों में उनके व्यंग्य नियमित रूप से प्रकाशित हो रहे हैं।आकाशवाणी से भी समय समय पर उनके व्यंग्य प्रसारित होते रहते हैं। मेरा मानना है कि परसाई के बाद उभरे शून्य को भरने में राकेश सोऽहं कुछ सीमा तक अपना योगदान करने में सक्षम हैं। संभवतः ज्ञान चतुर्वेदी नए व्यंग्यकारों के सृजन पर कुछ रोशनी डालते। जैसा कि कमला प्रसाद ने कहा है कि परसाई व्यंग्य को किसी साहित्यिक विधा के रूप में नहीं बल्कि एक स्पिरिट के रूप में देखते थे। वह स्पिरिट उनकी कर्मभूमि में मौजूद है। जरूरत है उसे महसूस करने की और नए लोगों को सामने लाने की। जैसा कि ज्ञान रंजन ने अपने एक लेख में कहा है कि सारे आकर्षणों को छोड़ कर परसाई ने एक छोटे से शहर जबलपुर को अपना स्थाई निवास बनाया और वहीँ से साहित्यिक भूमंडल को स्पर्श किया। जबलपुर के हर व्यक्ति को इस पर गर्व होना चाहिए। परसाई के साहित्यिक अवदान को राजनैतिक पक्षधरता के इतर विश्लेषित किया जाना चाहिए।