संध्या की रक्तिम आभा को
ढल रहे दिवस की अरुणिमा को
निरख रहा हूँ बरसों से।
ललित शाम के चेहरे बदले
और सुनहरे रंग भी बदले
मन मानस की दिशा न बदली
निरख रहा हूँ बरसों से।
बसा लिया था उसको दिल में
सोच लिया था कभी ना बदले
लेकिन वह तो हर पल बदली
निरख रहा हूँ बरसो से।
संध्या की रक्तिम शोभा को
जन्म दिया था सूरज ने
हृदय जलाकर दिया प्रकाश को
निरख रहा हूँ बरसों से।
करो नयन जब और सूर्य की
होगा मिलन तपन से उसकी
लजा गयी ओ नयन नत हुई
निरख रहा हूँ बरसों से।
निशा नींद में सुला गयी है
मन मानस को जगा गयी है
कुछ सोचोगे बता गयी है
निरख रहा हूँ बरसों से ।
सूरज तो तप रहा अभी भी
सागर के उस पार तप रहा
संध्या चैन की नींद सो रही
निरख रहा हूँ बरसों से।
# लक्ष्मी कान्त
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